धरातल पर वायुदाब का वितरण असमान है। वायुदाब, तापमान, जलवाष्प और पृथ्वी की परिभ्रमण गति आदि कई बातों से प्रभावित होता है। धरातल पर वायुदाब दो प्रकार का पाया जाता है-
(1) उच्च वायुदाब,
(2) निम्न वायुदाब ।
वायुदाब का वितरण क्रमबद्ध पेटियों के रूप में मिलता है, परन्तु स्थल तथा जल के असमान वितरण के कारण इन पेटियों की क्रमबद्धता में व्यवधान पड़ता है। वायुदाब की ये पेटियाँ पृथ्वी के एक ऐसे गोले पर सम्भावित मानी जाती हैं जो सम्पूर्ण रूप से स्थल-ही-स्थल हो या फिर जल-ही-जल।
पृथ्वी के गोले पर वायुदाब की जो पेटियाँ पायी जाती हैं, जो निम्नलिखित प्रकार--
(1) भूमध्यरेखीय निम्न वायुदाब पेटी (Equaorial Low Pressure Belt)— इसका विस्तार भूमध्य रेखा के समीप लगभग 5° उत्तरी अक्षांश और 5° दक्षिणी अक्षांश तक है। सूर्य के उत्तरायन तथा दक्षिणायन होने पर इस पेटी में खिसकाव या है। रेखा पर वर्ष-पर्यन्त सूर्य की किरणें लम्बवत् पड़ती तक है। सूर्य क मखिसकाव या स्थानान्तरण होता रहता है। भूमध्यरेखा पर वर्ष पर्यन्त सूर्य की किरणें लम्बवत् पड़ती है तथा दिन-रात बराबर होते हैं जिस कारण अत्यधिक तापक्रम के कारण हवाएँ गर्म होकर फैलती तथा ऊपर उठती हैं। फलस्वरूप वायुदाब सदैव निम्न रहता है। इस अतः प्रकार वायुमण्डल में संवहन धाराएँ उत्पन्न हो जाती हैं। इस क्षेत्र में धरातल पर पवनों मैं गति कम होने के कारण शांत वातावरण रहता है of A Region of Calm) कहा जाता है। उसे शान्त क्षेत्र (Doldrum of A Region of Calm) कहा जाता है ।
(2) उपोष्ण उच्च वायुदाब की पेटियाँ (Tropical High Pressure Belts) - दोनों गोलाद्धों (उत्तर एवं दक्षिण) में इनका विस्तार 30° से 35° अक्षाशों के मध्य पाया जाता है। यहाँ पर शीतकाल में दो महीने छोड़कर वर्ष पर्यन्त उच्च तापमान रहता है। अधिक तापमान रहते हुए भी यहाँ पर उच्च वायुदाब पाया जाता है। यहाँ पर उच्च वायुदाब पाया जाता है। यहाँ पर वायुदाब तापमान से सम्बन्धि न होकर पृथ्वी की दैनिक गति तथा वायु में अवतलन से सम्बन्धित है। भूमध्य रेखा से लगातार पवनें ऊपर उठकर इस पेटी में एकत्रित होती रहती हैं। साथ ही उपध्रुवीय निम्न वायुदाब पेटी से भी हवाएँ यहाँ एकत्रित होने लगती हैं जिससे वायुदाब अधिक बढ़ जाता है। इस पेटी को घोड़े का अक्षांश (Horse Latitude) भी कहते हैं, क्योंकि प्राचीनकाल में एक व्यापारी अपने पाल के जलयान द्वारा इंग्लैण्ड से आस्ट्रेलिया जा रहा था।
रेखा के निकट की इस पेटी में उसका जलयान फँस गया और डूबने लगा। इसलिए व्यापारी ने जहाज बचाने के लिए घोड़े समुद्र में फेंक दिए, तभी से इस उच्च वायुदाब की पेटी को 'घोड़े के अक्षांश' के नाम से भी पुकारा जता है ।
(3) उपध्रुवीय निम्न वायुदाब की पेटियाँ (Sub Polar Low Pressure Belts)—इन पेटियों का विस्तार दोनों गोलाद्धों पर 60° से 65° अक्षांशों में पाया जा है। तापमान कम पाया जाता है फिर भी वायुदाब कम पाया जाता है, क्योंकि पृथ्वी की भ्रमणशील गति (Rotation) के कारण इन अक्षाशों में वायु फैलकर स्थानान्तरित हो जाती है और वायुदाब कम रहता है। तापमान के प्रभाव से ध्रुवों पर उच्च वायुदाब बना रहता है और न्यून वादाब की पेटी अन्तत ध्रुव वृत्तों के ऊपर अथवा ठीक उनके बाहर बनती है।
(4) ध्रुवीय उच्च वायुदाब की पेटियाँ (Polar High Pressure Belts)—'ध्रुव वृत्तों से ध्रुव की ओर जाने पर वायुदाब बढ़ता जाता है। ध्रुवों के निकट तो उच्च वायुदाब का एक विशेष क्षेत्र बन जाता है। ध्रुवों पर कठोर शीत का वातावरण हमेशा रहता है इसलिए यहाँ उच्च वायुदाब पाया जाता है।
वायु तापमान का परिचय
यद्यपि सूर्य पृथ्वी की ऊर्जा एवं ताप प्राप्ति एकमात्र माध्यम है, किन्तु वायुमण्डल सीधे सूर्यातप से गर्म नहीं होकर पृथ्वी के गर्म होने के पश्चात् उससे जो भौतिक या पार्थिव विकिरण होता है उससे गर्म होता है। क्योंकि वायुमण्डल की निचली परतों में आते हुए सूर्यातप का सिर्फ 15% भाग ही जलवाष्प एवं धूल के कण ग्रहण करते हैं। इस प्रकार वायमण्डल की निचली परतें सर्वप्रथम भौतिक वितरण से गर्म होती हैं एवं उसके पश्चात् एक-एक कर ऊपरी परतें सामान्यतः गर्म होती हैं। रात्रि को वायुमण्डल के उन्हें होने की भी यही प्रक्रिया बनी रहती है। अतः वायुमण्डल निम्न विधि से गर्म एवं ठण्डा होता है-
1. सीधे सूर्यातप प्राप्ति से—वायुमण्डल की निचली परतों में उपस्थित धूल के कण 11% एवं जलवाष्प 4% आते हुए सूर्याताप को अवशोषित कर लेती है। किन्तु यह क्रिया सभी ऋतुओं में समान नहीं रहती। वर्षा के पश्चात् धूल के कणों में कमी जाने से अवशोषण कम होता है, किन्तु लम्बे समय तक बादल छाये रहने से सूर्याताप की सतह पर वास्तविक प्राप्ति कम हो जाती है।
2. संचालन द्वारा—संचालन विधि में ताप का प्रसार कणमय होता है। जिस प्रकार धातु के एक किनारे को गर्म करने पर सारी छड़ धीरे-धीरे गर्म होती जाती है एवं दूरी बढ़ाने पर ऊष्मा कम मात्रा में पहुँचती है। ठीक इसी प्रकार सूर्याताप से भूतल गर्म होकर अपने निकट की वायुमण्डल की परत को गर्म करती है एवं इससे ऊपर की ओर ताप का निरन्तर कणमय प्रसार होता रहता है। अतः निचली परतें पृथ्वी तल से सबसे अधिक ताप प्राप्त करती हैं। पृथ्वी से जो ताप की लहरें निकलती हैं उसे भौमिक विकिरण कहते हैं। यह लम्बी तरंगों वाला होने से वायुमण्डल द्वारा सारा ही अवशोषित कर लिया जाता है।
3. संवहन द्वारा — विकिरण एवं संचालन प्रक्रिया द्वारा जब वायुमण्डल की निचली परत गर्म हो जाती है, तो वह हल्की होकर ऊपर उठती है। ऊपरी हल्के वायुमण्डल में यह फैल जाती है एवं ठण्डी होकर भारी होने लगती है। भारी होने पर यही वायु पुनः धीरे-धीरे नीचे धरातल की ओर उतर जाती है। यहाँ यह पुनः गर्म होकर ऊपर उठती है। इस प्रकार की क्रिया निरन्तर एवं क्रमवार होते रहने को ही संवहन कहते हैं। इस प्रकार संवहन तरंगों से वायुमण्डल में दिन में ताप तरंगें एवं रात्रि में शीत तरंगें सम्पूर्ण वायुमण्डल की निचली परतों को प्रभावित करती रहती हैं। इसे ऊर्ध्ववर्ती संवहन भी कहते हैं।
4. विकिरण द्वारा- जो सूर्यातप भूतल को गर्म करता है वह ताप तरंगों के रूप में वायुमण्डल के चारों ओर विकिरित होता रहता है। विशेष धरातल की प्रकृति के अनुसार विकिरण कम ज्यादा हो सकता है। रेतीले मरुस्थल में ताप प्राप्ति शीघ्र होने से विकिरण भी तेजी से होता है एवं रात्रि को बिना नमी वाले स्वच्छ वायुमण्डल में ताप प्राप्ति से भी कहीं अधिक भौमिक विकिरण होता है। अतः मरुस्थलों में रात्रि को तापमान तेजी से नीचे गिरते हैं और पृथ्वी से शीतल तरंगें वायुमण्डल की ओर विकिरित होते हैं।
5. दाब परिवर्तन द्वारा-जब नीचे उतरती वायु का संपीडन होता है तो वह स्वयं भी गर्म होने लगती है एवं पृथ्वी से निकट आने पर धरातल की गर्मी से भी गर्म होती जाती है। जबकि ऊपर उठती हुई वायु फैलने एवं दाब मुक्ति से हल्की होने के साथ ही अधिक शीघ्रता से ठण्डी होने लगती है। इसे स्थानीय क्रिया कह सकते हैं किन्तु उसका ताप परिवर्तन पर थोड़ा बहुत प्रभाव अवश्य पड़ता है।
6. वायु वहन द्वारा-ठण्डे प्रदेशों में विकसित ठण्डी वायुराशि जिस प्रदेश की ओर बहेगी वहाँ के तापमान तेजी से घटेंगे, चाहे वहाँ सापेक्षतः अधिक भौमिक विकिरण भी प्राप्त हो रहा हो। इस भाँति जब कोई उष्ण वायुराशि ठण्डे प्रदेशों की ओर बहती है तो वहाँ के तापमान बढ़ने लगते हैं यद्यपि यहाँ पर भौमिक विकिरण कम प्राप्त हो रहा है। इसी के प्रभाव से गर्मियों के प्रारम्भ में शीत लहर से तापमान एकदम गिरने से फसलों को बहुत हानि पहुँचती है। दूसरी ओर उष्ण वायुराशि के प्रभाव से पश्चिमी यूरोपीय तट जम नही पाता।