सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक स्थिति के विषय में समसामयिक उपलब्ध स्रोतों से विस्तृत जानकारी उपलब्ध होती है। कौटिल्य का अर्थशास्त्र, मैगस्थनीज का भारत वर्णन, मैगस्थनीज के वर्णन का अन्य यूनानी विज्ञानों द्वारा उद्धरण तथा विभिन्न अभिलेख ऐसे स्त्रोतों में प्रमुख हैं जो तत्कालीन भारतीय सांस्कृतिक स्थिति पर प्रकाश डालते हैं।
सामाजिक स्थिति (Social Condition)
1. वर्ण एवं वर्णाश्रम व्यवस्था - वर्ण एवं वर्णाश्रम व्यवस्था मौर्यकाल तक पूर्ण रूप से विकसित हो चुकी थी । कौटिल्य ने धर्मशास्त्रों के समान चार वर्णों का ही वर्णन किया है तथा उनके व्यवसाय निर्धारित किये। पहले के समान ही समाज में ब्राह्मणों की प्रधानता थी। कौटिल्य ने चार वर्णों के अतिरिक्त अनेक वर्णसंकर जातियों का भी उल्लेख अर्थशास्त्र में किया है जिनकी उत्पत्ति विभिन्न वर्णों के अनुलोम एवं प्रतिलोम विवाहों के कारण हुई थी। इस वर्णसंकर जातियों में निषाद, मागध, सूत, वेग आदि उल्लेखनीय है कौटिल्य ने सभी वर्णसंकर जातियों को शूद्र ही माना है। मैगस्थनीज व्यवस्था के विषय में लिखा है कि कोई भी व्यक्ति अपनी जाति के बाहर विवाह नहीं कर भारत की वर्ण सकता था तथा न ही उसे अपने व्यवसाय को दूसरी जाति के व्यवसाय में बदलने की अनुमति थी। केवल ब्राह्मणों को यह अधिकार प्राप्त था।
सकता था तथा न ही उसे अपने व्यवसाय को दूसरी जाति के व्यवसाय में बदलने की अनुमति थी। केवल ब्राह्मणों को यह अधिकार प्राप्त था।
2. विवाह - सन्तानोत्पत्ति विवाह का मुख्य उद्देश्य था। विवाह के लिए कन्या की आयु 12 वर्ष व पुत्र की आयु 16 वर्ष उचित मानी जाती थी। कौटिल्य ने आठ प्रकार के विवाहों का वर्णन किया है। ये आठ प्रकार के विवाह इस प्रकार हैं—बाह्म विवाह, देव विवाह, आर्य विबाह, प्रजाप्रत्य विवाह, असुर विवाह, गन्धर्व विवाह, राक्षस विवाह व पैशाच विवाह ।
स्त्रियों व पुरुषों दोनों को ही पुनर्विवाह की अनुमति थी, किन्तु इस विषय में पुरुषों को अधिक सुविधाएँ प्राप्त थीं। चाणक्य ने नियोग प्रथा का भी उल्लेख किया है। पुरुषो
को अनेक विवाह करने की भी अनुमति थी। अर्थशास्त्र में लिखा है कि पुरुष सन्तान न होने पर पुनः विवाह कर सकता है, क्योंकि स्त्रियाँ सन्तान उत्पन्न करने के लिए ही हैं।
3. स्त्रियों की दशा— मौर्यकाल की स्त्रियों की दशा स्मृतिकाल से अच्छी थी तथा उन्हें पुनर्विवाह व नियोग की अनुमति थी, किन्तु फिर भी उनकी स्थिति कोई विशेष अच्छी नहीं थी। स्त्रियों को घर से बाहर जाने की अनुमति नहीं थी तथा पति की इच्छा के विरुद्ध कोई कार्य नहीं कर सकती थीं। मौर्य युग में अनेक ऐसी स्त्रियों का भी उल्लेख मिलता है जो पारिवारिक जीवन व्यतीत नहीं करती थीं तथा गणिका अथवा वेश्या का जीवन-यापन करते हुए राजा का मनोरंजन करती थीं। स्त्रियों से गुप्तचरों का भी कार्य लिया जाता था। राजमहल में भी स्त्रियाँ सैनिकों के रूप में भी कार्य करती थीं।
यूनानी लेखकों के वर्णनों से ज्ञात होता है कि राजघराने की स्त्रियाँ आवश्यकता होने पर शासन-सूत्र भी अपने हाथों में ले लेती थीं।
4. रहन-सहन—मौर्यकालीन भोजन में विविध प्रकार के अन्न, दूध व माँस का समावेश होता है। यद्यपि जैन व बौद्ध धर्मावलम्बी माँस नहीं खाते थे, किन्तु अधिकांश जनता इसका सेवन करती थी। यहाँ तक कि अशोक के समय में राजकीय रंघानागार में प्रतिदिन अनेक पशु-पक्षियों की हत्या की जाती थी। दूध, भारतीयों का प्रमुख पेय था। दूध के अतिरिक्त मधु, शरबत व अंगूर का रस आदि का प्रयोग भी किया जाता था। मदिरा का भी मौर्यकालीन लोगों द्वारा सेवन किया जाता था। मैगस्थनीज ने लिखा है कि विशेष प्रतिदिन अनेक पशु-पक्षियों का हत्या पण के अतिरिक्त मधु, शरबत व अंगूर का रस आदि का प्रयोग भी किया जाता था। मदिरा का भी मौर्यकालीन लोगों द्वारा सेवन किया जाता था। मैगस्थनीज ने लिखा है कि विशेष ) पदाधिकारियों के अतिरिक्त साधारण भारतीय मदिरा का सेवन नहीं करते थे, परन्तु मैगस्थनीज का यह कथन उचित प्रतीत नहीं होता क्योंकि अर्थशास्त्र से ज्ञात होता है कि मदिरा का समाज में प्रयोग होता था। मैगस्थनीज ने भारतीयों की भोजन करने की प्रणाली के विषय में लिखा है कि जब भारतीय भोजन करने बैठते थे तो प्रत्येक सदस्य के सामने तिपाई के आकार की मेज रख दी जाती जिसके ऊपर सोने के प्याले में सबसे पहले चावल परोसे जाते हैं। उसके बाद अन्य पकवान खाये जाते हैं।
5. दास प्रथा— दास प्रथा का प्राचीन भारतीय सामाजिक जीवन में महत्वपूर्ण स्थान रहा है। दास प्रथा मौर्यकाल में भी प्रचलित थी यद्यपि यूनानी लेखकों ने इसका उल्लेख नहीं किया है। मैगस्थनीज ने लिखा है कि सभी भारतीय समान हैं और उनमें कोई दास नहीं है। डायोडोरस ने भी लिखा है, “कानून के अनुसार भारत में कोई भी किसी भी परिस्थिति में दास नहीं हो सकता।" स्ट्राबो ने भी इसी संदर्भ में लिखा है, "चूँकि उनके (भारतीयों ) पास दास नहीं हैं। अतः उन्हें बच्चों की अधिक आवश्यकता होती है। "
मौर्यकालीन सामाजिक जीवन की सर्वोच्च विशेषता नैतिक स्तर था। अशोक द्वारा अपने अभिलेखों से माता-पिता की आज्ञा मानना, गुरुजन का आदर करना, अहिंसा, दान, क्षमा, सहिष्णुता का विकास करना उपर्युक्त कथन की पुष्टि करता है। मैगस्थनीज के वर्णन से भी इस कथन की पुष्टि होती है।