महासागरीय जल कभी कभी भी स्थिर नहीं रहता। हवा चलने से जल में गति होने से ज्वारीय लहरें उठती हैं। महासागरों के भौतिक एवं रासायनिक लक्षणों; जैसे- तापमान, खारापन, घनत्चव, बरफ को मात्रा आदि में अन्तर आने पर एवं हवाओं या पवनों के प्रभाव से गर्म प्रदेशों से हल्का व गर्मं पानी नदियों की भाति सागर तल पर शीतोष्ण प्रदेशं की ओर बहता है।
इसी भॉँति धुरवों से भी ठण्डे पानी की धाराएँ चलती हैं। इस प्रकार महासागरोय जल में तीन प्रकार की गतियाँ पायी जाती हैं। यह हैं ।
(1) लहरें (Waves)
(2) धाराएँ (Currents)
(3) ज्वार- भाटा (Tides)
1.लहरें (Waves)
जल की सतह पर पवनों के चलने से उसमें दोलन होने लगता है। उससे जल ऊपर एवं नीचे गिरता प्रतीत होता है। इससे पानी लहरदार आकृति व वलन की भाँति दिखाई देता है। अत: ऐसी लहर के ऊपरी भाग को शीर्ष या ऊपरी शिरा एवं निचले भाग को गर्त या द्रोणी कह सकते हैं जब यह गति एक व्यवस्था से बार-बार होती है तो ऐसा लगता है कि मानो पानी आगे बढ़ रहा हो जबकि लहरों में वास्तव में पानी ऊपर-नीचे अवश्य हिलता डुलता या दोलन करता है। उसमें आगे बढ़ने की क्रिया नहीं होती। जैसा कि चित्र से स्पष्ट है। इसी प्रकार पानी की लहरों के बीच कार्क या लकड़ी का टुकड़ा फेंक कर भी यह निश्चित किया जा सकता है। क्योंकि वह कार्क या लकड़ी का टुकड़ा ऊपर-नीचे होता रहेगा। दो लहरों के शीर्ष के बीच की दूरी को लहर की लम्बाई और लहर के शीर्ष व गर्त के लहरों के अन्तर को लहर की ऊँचाई कहते हैं जैसा कि समझाया गया है कि सागर में सामान्य लहरें की गति प्रदर्शित का गया। उठने का कारण प्रधानतः पवनें हैं अतः जितनी तेज गति से पवनें चलेंगी एवं उसमें जितनी आधा कम होगी उतनी ही अधिक ऊँची लहरें उठेंगी। इसी कारण तूफान एवं हरीकेन या उष्णकटिबन्धीय चक्रवात के समय जब पवनें 150 से 200 किमी. की गति से बहती हैं तो ऊँची-ऊँची लहरें से 3 से 5 मीटर तक उठती हैं। यदि ऐसी पवन अधिक समय तक निरन्तर बहती रहे तो लहरें और भी ऊँची उठेंगी। ऊँची लहरों के सम्बन्ध में दो बातें उल्लेखनीय हैं।
पहले तो ज्यों-ज्यों लहरों की ऊँचाई बढ़ती जायेगी, उनकी लम्बाई भी सापेक्षत कम होती जायेगी, अर्थात् ऐसी लहरें बार-बार तट से भयंकर शोर मचाती टकरायेंगी। लहर का सामान्यतः जितना हिसा उभार के समय जल से बाहर रहता है, उतना ही हिस्सा जल के भीतर भी रहता है। इस प्रकार जब ऐसी लहर तट से टकराती है तो वह लहरें तेजी से टूटने लगती है। टूटती हुई लहर का ऊपरी हिस्सा पूरी भयंकरता था वेग के साथ तट के भीतर की ओर दूर तक बढ़कर तबाही मचाता है। इस भाँति नीचे का टूटा हुआ घड़ बहुत तेज गति से गहरे सागर की ओर दौड़ता है। ऐसी में वह तट के निकट के सभी सामान या वस्तुओं (व्यक्ति, पशु, सामान आदि) को अपने साथ काफी गहराई तक बहा ले जाता है। इस प्रकार चक्रवात के उत्पात के साथ-साथ लहरों के उत्पात एवं टूटने से अपार हानि तट पर होती है मानो प्रलय मच गया हो। इस टूटी लहर को सर्फ कहते हैं। सागर विकसित तरंग स्वरूप को विकसित लहर (स्वेल) कहते हैं। महासागरों में अन्य कारणों शीलता आने से भी लहरें चल सकती हैं। जैसे सागर तेल में भूकम्प आने से अथवा मालामुखी विस्फोट से भयंकर या विनाशकारी सुनामी लहरें उठती हैं। इसी प्रकार भू-स्खलन से भी लहरें उत्पन्न हो सकती हैं। यह सभी अस्थाई लहरें होती हैं।
2. धाराएँ (Currents)
यह महासागरों की सबसे महत्वपूर्ण, प्रभावशाली एवं विश्वव्यापी गति है। इसमें पानी विशुवत रेखा से गतिशील होकर हजारों किमी. की यात्रा कर अण्डाकार मार्ग में पुनः वहीं आने लगता है। धारा में विशेष लक्षणों वाला जल भूतल की नदियों की भाँति साम निश्चित मार्ग एवं दिशा में बहता है। तापमान की दृष्टि से ये धारायें दो प्रकार की होती हैं-
(i) गर्म धारा—यह विषुवत रेखीय प्रदेश से ध्रुवीय प्रदेशों की ओर बहकर शीत सागरों को उष्ण रखती हैं।
(ii) ठण्डी धारा - यह दो प्रकार की होती है-
(अ) जब गर्म धारा पृथ्वी की गति सनातनी हवा के प्रभाव से शीतल सागरों से पुनः गर्म सागरों की ओर मुड़कर ठण्डी भार बन जाती है।
(ब) जब ध्रुवीय प्रदेशों का विशेष ठण्डा पानी शीतोष्ण सागरों की ओर बहत हुआ गर्म धाराओं से आपस में मिल जाता है।
गति एवं प्रवाह क्षेत्र की दृष्टि से धारायें तीन प्रकार की होती हैं-
(i) प्रवाह या ड्रिफ्ट (Drift)—यह धीमी गति से पवनों की दिशा में बहने वाला जल समूह होता है। यह उच्च अक्षांशों में गर्म जल प्रवाह होता है जैसे उत्तरी अटलांटिक ड्रिफ्ट
(ii) धारा (Current)—- जब सागर जल आगे लिखे कारणों से प्रभावित होकर निश्चित सीमा व विशेष लक्षणों के साथ बहता है तो उसे धारा कहते हैं। ठण्डी धारा कुछ धीरे एवं गर्म धारा अपेक्षतया तेज गति से बहती है।
(iii) स्ट्रीम (Stream) —जब अधिक सक्रिय व एक से अधिक समरूपी धाराओं का गर्म पानी मिलकर तेज गति से (6 से 11 किमी. प्रति घण्टा) संकरे मार्ग से निश्चित दिशा में बहता है तो उसे स्ट्रीम कहते हैं; जैसे गल्फ स्ट्रीम । वैसे क्यूरोसिवा धारा भी सिर्फ कहीं-कहीं से स्ट्रीम की भाँति व्यवहार करती है किन्तु वह ऐसी प्रभावशाली नहीं है।
धाराओं का सीधा प्रभाव विपरीत तापमान वाले प्रदेशों में विशेष महत्वपूर्ण रहा है। जब गर्म धाराएँ ठण्डे सागरों के तट पर बहती हैं तो वहाँ के तापमान ऊँचे रहते हैं। ऐसे सागर सर्दियों में भी यातायात के लिए खुले रहते हैं। जैसे पश्चिमी यूरोप, परि होशू के तट पर होता है। इस भाँति जब गर्म प्रदेशों के तट पर लैण्ड एवं ठण्डक बनी रहती है। ऐसे स्थानों पर प्रायः भूमि से सागर की ओर हवा भी बहती है। इस कारण इनका प्रभाव तट तक ही रहता है। यहाँ वर्षा भी कम होती है। जहाँ गर्म और ठण्डी धाराएँ मिलती हैं, यदि ऐसी दोनों धाराओं के बीच तापमान का अंतर काफी अधिक है जैसे गल्फ स्ट्रीम एवं लेब्रोडोर के बीच न्यूफाउंडलैण्ड के निकट मिलता है। ऐसा होने पर वहाँ घना कोहरा छा जाने से सागर यातायात में कठिनाइयाँ आती हैं और वहाँ कभी भी दुर्घटनाएँ हो सकती हैं। ऐसे स्थान मछली पकड़ने के लिए विश्व में आदर्श स्थल भी माने गये हैं। इसी भाँति शीतोष्ण सागरों में गर्म धारा चलने से वायु में तेजी से नमी बढ़ जाती है एवं वहाँ वाताग्रों एवं चक्रवातों के निर्माण में सहायता मिलती है। इससे पश्चिम के तटों के आस-पास शीतोष्ण प्रदेशों में अप्रत्यक्ष रूप से परिवर्तनशील जलवायु रहने से वहाँ के निवासियों की कार्यक्षमता ऊँची बनी रहती है। धाराओं की दिशा के साथ-साथ मध्ययुग में पालदार जहाजों द्वारा सरलता से जल यातायात किया जाता था। वर्तमान में भी धाराओं के बहाव के साथ जलयानों को चलाकर ईंधन की बचत की जा सकती है। इस प्रकार aria धाराओं का तापमान एवं मौसम पर लोगों की कार्यक्षमता, व्यापार, यातायात, जेव जगत एवं वातावरण पर गहरा प्रभाव पड़ता रहा है।
3.ज्वार-भाटा (Tides)
अति प्राचीनकाल से ही समझदार व्यक्ति के तल के ऊपर उठने एवं घटने की क्रिया का चन्द्रमा से सीधा सम्बन्ध मानते रहे हैं। यूनान काल में पिथियस एवं प्लिनी ने ज्वार-भाटे का विशेष वर्णन किया। भारत में भाष्कराचार्य एवं आर्य भट्ट ने गुरुत्वाकर्षण का वर्णन करते हुए सागर तल के परिवर्तन एवं आकाशीय पिण्डों के मध्य सम्बन्ध को समझने का प्रयास किया। सर्वप्रथम इस बारे में विस्तार से व्यवस्थापूर्वक वर्णन सर आइजक न्यूटन ने 1657 में 'गुरुत्वाकर्षण के सिद्धान्त' के द्वारा किया।
अतः संक्षेप में "ज्वार-भाटा वह विशिष्ट क्रिया है जिसमें सूर्य व चन्द्रमा की गुरुत्वाकर्षण की शक्ति के प्रभाव से प्रतिदिन नियमित रूप से समुद्र तल ऊपर उठता एवं नीचे गिरता है।" पानी के ऊपर उठने क्रिया को ज्वार (Flow of the tide) वं नीचे गिरने 4 की क्रिया को भाटा (Ebb of the tide) कहा जाता है। ज्वार भाटा के समय सागर तल में आने वाले परिवर्तन को नियमित रूप से मापा जा सकता है। अतः तट पर इसी के अनुसार विशेष सावधानी से जल की सम्भावित ऊँचाई की रेखाएँ बनायी जा सकती हैं। इनका तटवासियों की 'सुरक्षा के लिए भी विशेष महत्व है।
जहाँ खुले सागरों में ज्वारीय लहर की ऊँचाई लगभग समान रहती है, वहीं तटीय भागों एवं आन्तरिक सागरों में तट रेखा की प्रकृति, नदी के मुहाने की दिशा, ज्वारीय लहर के प्रवेश का मार्ग आदि से ज्वार की ऊँचाई प्रभावित होती है। उदाहरण के लिए, थेम्स एवं चमी न्यूजीलैण्ड है हुगली नदी में ज्वारीय लहर के प्रवेश से सागर का जल 7 से 9 मीटर तक ऊपर उठता है। ती में इससे ज्वार के समय जहाज बंदरगाह (लंदन व कलकत्ता) तक प्रवेश कर जाते हैं एवं भाटे के समय जब जल गिरने एवं लौटने लगता है तो पुनः लौट सकते हैं। फण्डी की खाड़ी (नोवास्कोशिया-कनाडा) का तट भीतर की ओर संकरा होने से ज्वारीय लहर की ऊँचाई 21 मीटर तक ऊपर उठ जाती है। दूसरी ओर भूमध्य सागर एवं फारस की खाड़ी जैसे सँकरे मुँह से जुड़े तटीय सागर में जब ऊँची ज्वारीय लहर प्रवेश करती है तो आगे के चौड़े सागर मैं यह फैलकर एकदम नीची हो जाती है। भूमध्य सागर में प्रवेश के समय जिब्राल्टर के मुहाने पर 2-3 मीटर ऊँची दीर्घ ज्वार की लहर भी सागर में घटकर मात्र 20 से 30 सेमी. ही रह जाती है।
एवं वहाँ तटों के ज्वार की उत्पत्ति को प्रभावित करने वाले कारक महासागरों में ज्वार या ज्वार की लहर के उत्पन्न होने का प्रधान कारण सूर्य एवं चन्द्रमा की आकर्षण शक्ति है। इसमें भी चन्द्रमा की आकर्षण शक्ति एवं उसका भ्रमणकाल विशेष महत्वपूर्ण है। अतः पृथ्वी के संदर्भ में सूर्य व चन्द्रमा की स्थिति, अपकेन्द्रित बल की उत्पत्ति भी ज्वारीय लहर को प्रभावित करते हैं। इसके अतिरिक्त इस क्रियां पर महाद्वीपों का विस्तार वें महासागरों तटीय खाड़ियों की आकृतियों का भी विशेष प्रभाव पड़ता है।