मनुष्य के शरीर के भाग (Human Body Parts)
मानव का शरीर अनेक छोटे-बड़े अंगों से मिलकर बना होता है। मनुष्य का शरीर एक अत्यन्त गूढ़ यन्त्र के समान है जिसमें अनगिनत अंग लगे हुए हैं। प्रत्येक अंग का अलग-अलग कार्य है, जिसको वह अत्यन्त कुशलता से सम्पन्न करता है। मनुष्य का शरीर दो प्रकार के भागों से बना होता है-एक मध्यस्थ भाग, दूसरा प्रान्तस्थ भाग। 1 सिर और धड़ मध्यस्थ भाग हैं। दोनों ओर की ऊर्ध्व और निम्न शाखाएँ बाहु हाथ, जंघा, टाँग, पाँव प्रान्तस्थ भागों के जोड़े हैं।
1. सिर (Head) - शरीर के ऊपरी भाग में सिर स्थित है। यह ग्रीवा द्वारा धड़ से जुड़ा रहता है। सिर में दो भाग होते हैं। ऊपर का भाग कपाल (Cranium) कहलाता है। जो 8 अस्थियों से बना होता है। यह सन्दूक के समान है। इसमें मस्तिष्क रहता है। कपाल के नीचे का भाग आनन (Face) कहलाता है। आनन में ही नेत्र, नाभिका, कपोल, मुख तथा दोनों कान होते हैं।
2. मस्तिष्क (Brain)- मस्तिष्क शरीर का राजा या संचालक है। यह शरीर में सबसे ऊपर सुरक्षित रहता है। मस्तिष्क ही हमारे सभी कार्यों का नियमित तथा नियन्त्रित
करता है। यह चारों ओर अस्थियों के साँचे से घिरा रहता है।अस्थियों के इस ढांचे को कपाल कहते हैं।
मस्तिष्क के तीन भाग होते हैं-
(i) प्रमस्तिष्क (Cerebrum) - यह मस्तिष्क का सबसे बड़ा भाग होता है ज अन्य भागों से ऊपर तथा सामने रहता है।
(ii) मध्य मस्तिष्क (Mid Brain)- इसके दो भाग होते हैं-
(a) ऊपरी तरह पटल (Tectuns),
(b) तल (Floor)
(iii) पश्च मस्तिष्क- इसके तीन भाग होते हैं-
(a) सेतु (Pons) - यह अनुमस्तिष्क के सामने का भाग है।
(b) सुषुम्ना शीर्ष (Medulla Oblongata ) - यह सुषुम्ना का ऊपरी भाग है।
(c) अनुमस्तिष्क (Cerebellum) - यह प्रमस्तिष्क से छोटा और इसके ि भाग में नीचे की ओर होता है।
मस्तिष्क के कार्य - (1) यह सारे शरीर का संचालन करता है।
(2) यह शरीर के सभी कार्य तथा प्रत्येक कार्य तथा प्रत्येक अंग में होने वाले कर्म को नियन्त्रित एवं नियमित रखता है।
3. ग्रीवा (Neck) -ग्रीवा सिर और धड़ के बीच का पतला भाग होता है जिसमें से होकर धमनियाँ वक्ष से सिर में जाती हैं और शिराएँ तथा तन्त्रिकाएँ ग्रासनली (Oesophagus) और श्वासनाल (Trachea ) वक्ष में जाते हैं, इनके अतिरिक्त ग्रीवा में अनेक पेशियाँ हैं ओर जो सिर और ग्रीवा को घुमाती हैं।
4. धड़ (Trunk ) - धड़ में शरीर के अनेक अंग रहते हैं, धड़ एक बहुत बड़ा गु है, जिसमें हृदय और फुफ्फुस (Lungs) स्थित हैं। श्वासनाल वक्ष में आकर दो शाखाओ में विभक्त हो जाता है। एक शाखा प्रत्येक फुफ्फुस में चली जाती है। दूसरी गुहा जिसे उदर (Abdomen) कहते हैं। ग्रासनली भी ग्रीवा में आकर वक्ष, गुहा, डायाफ्राम को पार करती हुई उदर को चली जाती है। ग्रासनली और महाधमनी वक्ष से उदर में तद महासिरा उदर से वक्ष में आती है। उदर भाग डायाफ्राम से प्रारम्भ होकर श्रोणि (Pelvic Regian) तक चला जाता है। सामने की ओर पेशियों की एक दीवार होती है। दाहिने भाग में यकृत, यकृत से सटा हुआ पित्ताशय, बाँयी ओर आमाशय, अग्न्याशय क्षुद्रान्न, वृहदान्त्र, प्लीहा (Spleen) और दो वृक्क (Kidney) रहते हैं। उदर के निचले भाग को श्रोणि कहते हैं। इस भाग में मूत्राशय (Blader), गर्भाशय ( Uterus) स्थित होता है।
5. हृदय (Heart)- हृदय की स्थिति वक्ष के दोनों फुफ्फुसों के बीच मध्यच्छ पेशी के ऊपर बाँयी ओर स्थित है। हृदय का ऊपरी भाग थोड़ा दाहिनी ओर को झुका रहता है जबकि हृदय का निचला भाग नुकीला पाँचवीं, छठीं बाँयी पसलियों के मध्य भाग की ओर रहता है। हृदय के सामने की ओर उरोस्थि है और पीछे की ओर वक्ष प्राप्त की पाँचवीं, छठीं, सातवीं और आठवीं कशेरुका मात्र है। कशेरुका व हृदय के मध्य वृहद धमनी और अन्न प्रणाली स्थित है।
मानव कंकाल(Human Skeleton)
मानव कंकाल अस्थियों तथा उपस्थियों का बना एक ढाँचा होता है। सम्पूर्ण ढाँचा कंकाल तन्त्र कहलाता है। मानव एक कशेरुकी प्राणी है। मानव को रूप एवं आकार देने के लिए ढाँचे की आवश्यकता होती है। कंकाल के द्वारा हृदय, फेफड़े, आँखों जैसे कोमल अंगों की सुरक्षा होती है। मानव का चलना, दौड़ना, मुट्ठी बाँधना, सुई पकड़ना वझुकना आदि कार्य करना कंकाल द्वारा ही सम्भव है। कशेरुकी प्राणियों में कंकाल दो प्रकार का होता है-
(1) बाह्य कंकाल, तथा
(2) अन्तः कंकाल ।
बाह्य कंकाल बाहर से दिखाई देने वाला कंकाल है। यह त्वचा की चर्म तथा उपचर्म से बनता है। जैसे-बाल, पंख, नाखून, पंजे, खुर, चोंच आदि कंकाल के उदाहरण हैं जो कशेरुकी प्राणियों के उदाहरण हैं।
अन्त:कंकाल बाहर से दिखाई नहीं देता यह त्वचा के नीचे होता है। इसके द्वारा ही शरीर का ढाँचा होता है।
मुख्य रूप से यह कंकाल दो भागों में विभाजित रहता है-
1. अक्षीय कंकाल,
2. अनुबन्धी कंकाल ।
1. अक्षीय कंकाल-यह शरीर की लम्ब अक्ष पर स्थित होता है। इसके अन्तर्गत करोटि अथवा खोपड़ी (Skull), कशेरुक दण्ड (Vertibrael Column), पसलियाँ (Ribs) तथा उरोस्थि (Sternum) होते हैं।
करोटि (Skull) - मानव की खोपड़ी अथवा करोटि में 22 अस्थियाँ होती हैं। खोपड़ी करोटि के मुख्य भाग होते हैं— (i) कपाल (Cranium), और (ii) आनन (Face)। कपाल 8 अस्थियों से निर्मित होता है, जिसके अन्दर मस्तिष्क सुरक्षित है। आनन में 14 अस्थियाँ होती हैं। आनन पर कई गुहिकाएँ हैं जिनमें महत्वपूर्ण इन्द्रियाँ -आँख, कान एवं नाक सुरक्षित रहती हैं। खोपड़ी के दोनों ओर कर्णेन्द्रियाँ लम्बी नली के भीतरी भाग में सुरक्षित रहती हैं।
खोपड़ी में 22 अस्थियों के अतिरिक्त 7 अन्य छोटी अस्थियाँ और भी हैं-तीन-तीन दोनों कानों में और एक गले में, ये सातों सिर की मुख्य अस्थियाँ नहीं हैं।
कशेरुक दण्ड (Vertibral Column) - यह शरीर का अक्ष बनाता है तथा मेरुरज्जू (Spinal Cord) को बाहरी आघातों से सुरक्षित रखता है। बालक के मेरुदण्ड में 33 कशेरुकाएँ होती हैं। आयु वृद्धि के साथ नीचे की 9 कशेरुकाओं में से पिछली 5 कशेरुकाएँ मिलकर एक कशेरुका तथा अन्तिम चार मिलकर एक कशेरुका बन जाती हैं। इस प्रकार वयस्क अवस्था में 26 कशेरुकायें रह जाती हैं।
प्रथम सात-ग्रीवा कशेरुकाएँ (Cervical Vertebrae)- गर्दन का भाग बनाती हैं। द्वितीय बारह-अभिपृष्ठ कशेरुकाएँ (Dorsal Vertebrae) वक्ष के पीछे का भाग
तृतीय पाँच-कट कशेरुकाएँ (Lumber Vertebrae) कमर का भाग बनाती हैं। अन्तिम नौ श्रोणि गुहा को बनाती हैं।
पसलियाँ (Ribs) - वक्ष में दोनों ओर 12-12 पसलियाँ होती हैं। ये सभी मेरुदण्ड से जुड़ी रहती हैं। पहली सात पसलियाँ रीढ़ से आकर उरोस्थि से उपास्थि के द्वारा जुड़ी रहती हैं। आठवीं, नवीं तथा दसवीं पसलियाँ उपास्थि द्वारा सातवीं पसली से जुड़ी रहती हैं। इस प्रकार ये तीनों अप्रत्यक्ष रूप से सम्बन्धित हैं। अन्तिम दो पसलियाँ चलायमान या गौण पसलियाँ कहलाती हैं। पसलियों के मध्य रिक्त स्थान में पेशियाँ भरी रहती हैं। जिनको अन्तरापर्शु पेशियाँ (Intercoastal Nuscles) कहते हैं। ये प्रत्येक दो पसलियाँ के बीच किनारों से जुड़ी रहती हैं और फैलकर सिकुड़ सकती हैं। श्वास लेते समय इन्हीं के सहारे में यह अस्थि-पिंजर ऊपर उठता व नीचे गिरता है।
उरोस्थि (Sternum) - पर्शुका पिंजर का सामने वाला भाग उरोस्थि से निर्मित होता है। यह चपटी तथा कटार के आकार की अस्थि है जो 16-17 सेमी. लम्बी होती है। इसमें अग्रलिखित तीन भाग हैं-
(1) ऊपरी फैला हुआ भाग- इसके दोनों ओर जत्रुकास्थि (हँसली की हड्डियाँ) मिलती हैं। इसको हस्तक कहते हैं।
(2) मध्य का फैला हुआ भाग-इसके किनारे कुछ कुछ कटे से होते हैं। इसी भाग में आकर पशुकाओं अथवा पसलियों के सातों जोड़ें मिलते हैं।
(3) निचला सँकरा भाग-यह उपास्थि (कार्टिलेज) का बना होता है इसी भाग में नीचे आमाशय, यकृत, पित्राशय एवं तिल्ली आदि होते हैं।.
2. अनुबन्धी कंकाल (Appendicular Skeleton) - यह शरीर की लम्ब अर्थ के दोनों ओर स्थित होता है। इसके अन्तर्गत अंश मेखला तथा श्रोणि मेखला और भुजाओं की अस्थियाँ होती हैं।
कंकाल तन्त्र के कार्य (Functions of Skeleton) - शरीर में कंकाल तन्त्र के
कार्य निम्नलिखित हैं-
(1) शरीर को आकार प्रदान करना।
(2) शरीर को दृढ़ता प्रदान करना।
(3) शरीर के कोमल अंगों को सुरक्षा प्रदान करना।
(4) श्वसन में सहयोग प्रदान करना।
(5) माँसपेशियों को क्रियाशील बनाना।
(6) रक्त कणिकाओं का निर्माण करना ।
पेशियाँ एवं पेशीय गतियाँ(Muscles System)
कंकाल तन्त्र पर माँस का जो आवरण होता है, उसको पेशी संस्थान कहते हैं। शरीर की सभी प्रकार की गति अस्थियों एवं पेशियों के सम्बन्ध से उत्पन्न होती है।
पेशियों में दो प्रकार की गति पायी जाती है- (1) संकुचन, तथा (2) शिथिलन या प्रसरण ,पेशी का संकुचन दो प्रकार का होता है-
(1) ऐच्छिक (Voluntary),
(2) अनैच्छिक (Involuntary)।
ऐच्छिक गति से तात्पर्य है वह गति जो मनुष्य की अपनी इच्छानुसार नियमित हो । ऐसी गति करने वाली पेशियों को ऐच्छिक पेशियाँ कहते हैं; जैसे- हाथ-पैर व चेहरे आदि की पेशियाँ। अनैच्छिक गति वाली पेशियाँ स्वयं ही कार्य करती हैं और मनुष्य की इच्छा द्वारा नियमित नहीं होती; जैसे- आमाशय, हृदय आदि की पेशियाँ। ऐसी पेशियों को अनैच्छिक पेशियाँ कहते हैं।
(१).ऐच्छिक पेशियाँ (Voluntary Muscles) – ये पेशियाँ कंकाल के समस्त भागों से सम्बन्धित हैं। ये अस्थि सन्धियों में गति उत्पन्न करती हैं। इनकी गति मस्तिष्क द्वारा नियन्त्रित होती है। इनमें अत्यधिक शक्ति होती है और ये तेजी से कार्य कर सकती हैं। किन्तु निरन्तर कार्य करने के पश्चात् इनमें थकावट उत्पन्न हो जाती है।
(२).अनैच्छिक पेशियाँ (Involuntary Muscles) - अनैच्छिक पेशियों की गति धीमी परन्तु सदैव एक-सी रहती है। इनकी गति पर मस्तिष्क का कोई नियन्त्रण नहीं होता। ये बिना रुके दिन-रात कार्य करती हैं, फिर भी इनमें थकान उत्पन्न नहीं होती ।
ऐच्छिक पेशियों में बारीक-बारीक तन्तु विद्यमान रहते हैं, जिन्हें अक्षुवीक्षण यन्त्र से देखा जा सकता है। इसलिए इनको रेखित पेशियाँ कहते हैं। पेशी की संरचना-पेशियाँ विभिन्न प्रकार की होती हैं। जिन अस्थियों के सहारे से पेशियाँ जुड़ी रहती हैं, उन्हीं के आकार की तरह इनका भी आकार होता है। प्रत्येक पेशी बाल जैसी कोशिकाओं से मिलकर बनती है। प्रत्येक पेशी ऊतक को रुधिर-वाहिनियों से रक्त तथा मस्तिष्क से तन्त्रिकाएँ प्राप्त होती हैं। प्रत्येक पेशी के तीन भाग होते हैं। ऊपरी सिरा मूल कहलाता है, बीच का मोटा भाग तुन्द कहलाता है और निचले सिरे को निवेशन कहते हैं। ये दोनों सिरे पतली डोरी के समान श्वेत ऊतकों के बने होते हैं। इन तन्तुओं को माँस रज्जु या कण्डरा या टेण्डन (Tendon) कहते हैं। निवेशन की अपेक्षा मूल अधिक दृढ़ता से बँधा रहता है।
पेशियों के कार्य (Functions of Muscles) - पेशियों के मुख्य कार्य निम्नलिखित हैं-
(1) गुहाओं को चौड़ा करना।
(2) अंगों को सक्रिय करना एवं उनमें गति उत्पन्न करना ।
(3) छिद्रों को खोलना एवं बन्द करना।
दाँत(Teeth)
शरीर में भोजन पचाने का कार्य दाँतों से ही प्रारम्भ होता है। दाँत भोजन को काटकर बहुत महीन करते हैं जिससे भोजन पचाने की आगे की क्रियाएँ सरल हो जाती हैं। इस प्रकार दाँत एक चक्की की तरह भोजन पीसने का कार्य करते हैं। दोन वर्णोच्चारण में भी सहायक हैं। मनुष्य के जीवन में दाँत दो बार निकलते हैं।
(1) दूध के दाँत या अस्थायी दाँत (Milk Teeth)- इन दाँतों की संख्या 20 होती है। ये दाँत बालक की 7-8 माह की आयु से लगभग 2-3 वर्ष की आयु तक निकलते हैं। इस समय बच्चे का मुख्य भोजन दूध ही होता है। अतः इन दाँतों को 'दूध के दाँत' कहते हैं। लगभग 7-8 वर्ष की आयु में ये दाँत गिरने आरम्भ हो जाते हैं और इनके स्थान पर नीचे से स्थायी दाँत ऊपर आने लगते हैं।
(2) स्थायी दाँत (Permanent Teeth) - 7-8 वर्ष की आयु के बाद बालक में दाँत निकलना प्रारम्भ होता है और प्रौढ़ अवस्था तक निकलते हैं। इस आयु बालक अन्न का सेवन करने लगता है, अतः इन्हें 'अन्न के दाँत' भी कहते हैं। इनकी संख्या दोनों जबड़ों में लगभग 16-16 होती है।
दाँतों के प्रकार (Types of Teeth)
मनुष्य के में मुख चार प्रकार के दाँत पाये जाते हैं-
(1) कुक्तक या छेदक-दन्त (Incisors) - ये दाँत धारदार होते हैं। इनकी संख्या चार-चार होती है। ये भोजन को छोटे-छोटे टुकड़ों में विभाजित करते हैं।
(2) रदनक या भेदक-दन्त (Canine) - इन दाँतों की संख्या 2-2 होती है। ये (Dentine) क दाँत छेदक दाँतों की अपेक्षा लम्बे एवं नुकीले होते हैं। ये दाँत भोजन को फाड़ने का कार्य करते हैं।
(3) अग्र-चवर्णक दन्त (Pre-Molars)- इन दाँतों के सिरे नुकीले होते हैं। केनाइन दाँतों की अपेक्षा ये कम नुकीले होते हैं। इनकी संख्या 4-4 होती है। इनका कार्य भोजन को कुचलना है।
(4) डाढ़ या चवर्णक (Molar or Grinding Teeth)- ये दाँत मुख में पीछे की ओर होते हैं तथा आकार में चौकोर होते हैं। इनके सिरे तेज धारदार होते हैं। इनका मुख्य कार्य भोजन को चढ़ाना होता है। ये दाँत अत्यन्त मजबूत होते हैं। इनकी कुल संख्या 6-6 होती है।
दाँतों की संरचना(Structure of Teeth)
बाह्य संरचना (External Structure ) - बाह्य रचना की दृष्टि से दाँतों को अग्र भागों में बाँटते हैं--
(1) दन्त शिखर (Crown) - दाँतों का वह भाग जो मसूड़ों के बाहर दिखाई देता * उसे दन्त शिखर कहते हैं। यह भाग सफेद व चमकदार होता है।
(2) दन्त ग्रीवा (Neek ) - यह दाँतों का मध्य भाग होता है। यह भाग मसूड़ों से ईका रहता है।
(3) दन्त मूल (Root) - यह दाँतों का सबसे निचला भाग होता है जो जबड़े की अस्थियों के साथ जुड़ा रहता है। इसे 'दाँतों की जड़' भी कहा जाता है। ?
आन्तरिक रचना (Internal Structure)-सभी दाँत दन्त अस्थि के बने होते हैं। ये अन्दर से खोखले होते हैं। खोखले भाग को दन्तगुहा (Pulpcavity) कहते हैं। खोखले भाग में गूदा भरा होता है, जिसे मज्जा (Pulp) कहते हैं। मज्जा में सूक्ष्म रक्त कोशिकाएँ, स्नायु सूत्र तथा नलिकाएँ पायी जाती हैं। दाँतों में खराबी होने पर पीड़ा उत्पन्न करता है। दन्त शिखर तथा दन्त मूल पर एक कड़े पदार्थ की पर्त चढ़ी रहती है, जिसे सीमेन्ट (Dentine) कहते हैं। डेन्टीन दाँतों को मसूड़े के अन्दर दृढ़ता से जमाये रखने का कार्य करता है। दन्त शिखर पर सफेद चमकीली पर्त चढ़ी होती है इसे दन्त बल्क (Enamel) कहते हैं। ये दन्त अस्थि की रक्षा करती है तथा दाँतों की सुन्दर व चमकीला बनाये रखती है।