मध्यकालीन (मुगलकालीन) शिक्षा की विशेषताएँ यदि हम सम्पूर्ण युग में प्रचलित शिक्षा-व्यवस्था का अध्ययन करें तो हमें उसकी अग्रांकित विशेषताएँ दिखाई पड़ती हैं-
1. उद्देश्य-सम्पूर्ण मुस्लिम युग में अनेक शासक हुए हैं इनमें से कुछ अधिक शिक्षा-प्रेमी थे । कुछ उदार दृष्टिकोण वाले, तो कुछ बहुत ही कट्टर धार्मिक प्रवृत्ति के थे । इन्होंने अपने-अपने दृष्टिकोण से शिक्षा की व्यवस्था की। इस युग के निम्नांकित सामान्य उद्देश्य थे—
(i) ज्ञान का प्रचार— 'किसी को सोना देने से शिक्षा देना अधिक उपयोगी है क्योंकि इससे ज्ञान की उन्नति होती है ।' मुहम्मद साहब का ऐसा कहना था— ज्ञान अमृत है जो अमरत्व प्रदान करता है। इससे इस्लाम धर्म का प्रचार एवं प्रसार होता है। इसलिए शिक्षा के माध्यम से ज्ञान का प्रसार करना चाहिए। सम्पूर्ण मुस्लिम शिक्षा का उद्देश्य ज्ञान का प्रसार करना था जिससे इस्लाम का प्रचार व उन्नति हो ।
(ii) धर्म का प्रचार करना—मुसलमान भारत में न केवल सम्पत्ति लूटने तथा शासन करने आये थे वरन् इस्लाम धर्म का प्रचार एवं प्रसार करने भी आये थे । जो जितने अधिक काफिरों को मुसलमान बना सकता था वह खुदा का उतना ही अधिक प्यारा होता है, ऐसा मुहम्मद साहब का उपदेश है । धर्म प्रचार एक परम कर्त्तव्य है और • इसे 'सबाव' (पुण्य) कार्य माना जाता है । अतः समस्त शासक शिक्षा के माध्यम से इसे सबाव का लाभ अर्जित करना चाहते थे।
(iii) भौतिक सुखों में वृद्धि करना-इस्लाम धर्म पुनर्जन्म में विश्वास नहीं करता है । अत: मानव ने जो जन्म प्राप्त किया है इसमें सम्पूर्ण सुखों का भोग कर लेना चाहिए, ऐसी इस्लाम धर्म की मान्यता है। सुखों का भोग अर्थ एवं काम पर आधारित है । काम एवं अर्थ दोनों ही शिक्षा पर आधारित थे, क्योंकि शिक्षा द्वारा धनोपार्जन सहज था । मुस्लिम युग में शिक्षित लोग कम थे और जो थे, उन्हें अच्छे शासकीय पद मिल जाते थे । शिक्षा भौतिक सुख प्राप्त करने का प्रमुख साधन थी ।
(iv) शासन का दृढ़ीकरण करना—समस्त मुस्लिम शासक इस बात को जानते थे कि भारत में मुस्लिम शासन की जड़ें उस समय तक दृढ़ नहीं हो सकती हैं जब तक कि भारतीय हिन्दू जनता मुसलमानों के प्रति वफादार (Loyal) नहीं हो जाती है । यु, नियमों उन्होंने शिक्षा के माध्यम से हिन्दुओं के हृदय में मुस्लिम शासन के प्रति अनुकूल भावना का विकास करना प्रारम्भ किया । कहना न होगा कि वे पर्याप्त मात्रा में इस दिशा में सफल रहे ।
(v) संस्कृति का प्रचार करना- मुस्लिमकालीन शिक्षा का एक प्रमुख उद्देश्य मुस्लिम रीति-रिवाजों, खान-पान, व्यवहार आचरण तथा नैतिक मूल्यों का प्रचार करना था । सम्पूर्ण मुस्लिम संस्कृति धन, शराब तथा स्त्री भोग पर आधारित थी । यह अधिक आकर्षक, सुखकर तथा सरल थी । इसलिए बड़ी मात्रा हिन्दू इस ओर उसकी आकर्षित हुए और उन्होंने मुस्लिम शिक्षा तथा धर्म अपना लिया। इतना ही नहीं, शिक्षा के माध्यम से उन्होंने भारत-भूमि पर मुस्लिम शासन की जड़ें मजबूत कीं। उन्होंने धर्म का व्यापक प्रचार किया एवं उसको संरक्षण प्रदान किया।
2. शिक्षा-व्यवस्था — सम्पूर्ण मुस्लिम शिक्षा-व्यवस्था मकतब तथा मदरसों पर आधारित थी ।
(i) मकतब—हम जानते हैं कि सम्पूर्ण मुस्लिम शिक्षा व्यवस्था धर्म पर आधारित थी तथा धर्म का प्रचार करना ही उसका प्रमुख उद्देश्य था । अतः प्रत्येक मस्जिद के साथ प्राथमिक शिक्षा प्रदान करने के लिए एक-एक प्राथमिक विद्यालय स्थापित किया गया । मस्जिद के साथ लगे इस प्राथमिक विद्यालय को ही मकतब कहते हैं ।
‘मकतब' फारसी भाषा के 'कुतुब' शब्द से बना है । इसका अर्थ है—'लिखना' इस अर्थ में मकतब का वह स्थान है जहाँ बालक लिखना सीखता है । मस्जिदों के साथ संलग्न मकतबों में अक्षर-ज्ञान के साथ-ही-साथ धार्मिक शिक्षा भी चलती थी ।
(ii) मदरसा-मुस्लिम युग में उच्च शिक्षा के केन्द्र थे । 'मदरसा' शब्द फारसी के 'दरस' शब्द से निर्मित थे । इसका अर्थ है—' व्याख्यान देना' । मदरसा वह स्थान है जहाँ भाषण दिये जाते हैं। यहाँ उच्च स्तरीय शिक्षा प्रदान की जाती थी ।
3. अध्ययन पद्धति — मुस्लिम युग में शिक्षा प्रदान करने की कोई विशेष पद्धति प्रचलित न थी । प्राथमिक स्तर पर मौखिक रूप से शिक्षा प्रदान करने पर बल दिया जाता था । किन्तु लकड़ी की पट्टी या जमीन पर बालू बिछाकर उस पर उँगली से अक्षर ज्ञान भी कराया जाता था । लकड़ी की पट्टी पर काली स्याही से लिखा जाता था । एक विशेष प्रकार की मिट्टी से भी लिखा जाता था । मदरसों के शिक्षण का प्रमुख साधन भाषण ही था ।
इस समय 'मॉनीटर प्रणाली' Monitor System मकतब तथा मदरसा में प्रयुक्त होती थी । बड़ी कक्षा के प्रतिभावान छात्र अपनी ही कक्षाओं को अथवा छोटी कक्षाओं को पढ़ाया करते थे ।
4. शिक्षण माध्यम -इस युग में शिक्षण का माध्यम फारसी था । मकतब तथा मदरसों में फारसी के माध्यम से शिक्षण कार्य होता था। अकबर ने इस सम्बन्ध में कुछ छूट दे दी थी और उस समय कुछ शिक्षण पाली या संस्कृत भाषा में होने लगा था। वैसे कुछ हिन्दू पण्डित निजी तौर पर अपने ही घरों में हिन्दुओं के उच्च वर्ग को संस्कृत आदि का अध्ययन कराते थे । कुछ हिन्दुओं के उच्च परिवार किसी संस्कृतज्ञाता को अपने घर पर बुलाकर अपने पुत्र-पुत्रियों की शिक्षा की व्यवस्था किया करते थे।
5. परीक्षा-प्रणाली- मुस्लिम युग में न तो मकतब स्तर पर और न मदरसा स्तर पर किसी भी प्रकार की परीक्षा-प्रणाली प्रचलित थी। मौलवी (Teacher) व्यक्तिगत रूप से जब सन्तुष्ट हो जाता था, तभी बालक को ऊँची जमात 'कक्षा' में भेज दिया। करता था । विभिन्न स्तरों की शिक्षा प्राप्त होने पर बालक को 'कामिल', 'फाजिल' तथा 'आलिम' की उपाधियाँ प्रदान करा दी जाती थीं ।
6. छात्रावास — मस्जिदों में मकतब होते थे । यहाँ आस-पड़ौस के छोटे-छोटे बालक शिक्षा प्राप्त करते थे। अतः उनके आवास के लिए प्रत्येक मदरसे में छात्रावासो की व्यवस्था रहती थी। छात्रावासों को शासन की ओर से बड़ी-बड़ी जागीर मिली रहती थीं। इन जागीरों से मदरसा को पर्याप्त आमदनी हो जाती थी। जागीरों से प्राप्त आमदनी से ही छात्रावास में निःशुल्क निवास तथा भोजन की व्यवस्था की जाती थी। यहाँ खेलकूद, तैराकी, अध्ययन आदि की सुन्दर व्यवस्था रहती थी। छात्रावासों में भोजन पर्याप्त तथा पौष्टिक मिलता था। प्रायः सभी छात्रावासों में माँसाहारी भोजन मिलता था।
7. पाठ्यक्रम - मकतबों में अक्षर ज्ञान तथा धार्मिक ज्ञान को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। छोटे-छोटे बालकों की कुरान की इवादतें कठस्थ करायी जाती थीं। बालक कुरान की इवादतों को सामूहिक रूप से बोल-बोलकर रटा करते थे। इसी प्रकार वे रट-रटकर, अक्षर, गिनती तथा पहाड़े रटा करते थे ।
मदरसों में फारसी भाषा, व्याकरण दर्शन, धर्मशास्त्र तथा सैन्य-व्यवस्था आदि की शिक्षा प्रदान की जाती थी । इस युग में नृत्य, संगीत, रेशम तथा जरी का काम, इत्र-निर्माण, हाथी दाँत का काम, यूनानी चिकित्सा पद्धति आदि का ज्ञान प्रदान किया जाता था । नैतिक भाषा प्रदान करने के लिए 'गुलिस्ताँ' 'बोस्ताँ' आदि पढ़ाये जाते थे । व्यावहारिक शिक्षा के अन्तर्गत पत्र लेखन, कला, अर्जीनवासी आदि की शिक्षा दी जाती थी । 'लैला मजनू', 'युसफ जुलें खाँ' आदि पुस्तकों द्वारा कविता आदि का अध्ययन कराया जाता था ।
8. अनुशासन- मकतब व मदरसों में कड़े अनुशासन पर बल दिया जाता था । छोटे-छोटे अपराधों के लिए भी कठोर शारीरिक दण्ड दिया जाता था । मौलवी स्वतन्त्रता के साथ बैंत, कोड़े, लात, घूँसे आदि का शारीरिक दण्ड देने के लिए प्रयोग करते थे। मुर्गा बनाने की भी आम प्रथा थी ।
9. गुरु-शिष्य सम्बन्ध-शिष्य अपने गुरुओं का पर्याप्त सम्मान व आदर करते थे । गुरुओं को समाज तथा राजदरबार में भी पर्याप्त सम्मान प्राप्त होता था । शायद इसी कारण मकतब व मदरसों में उन्हें उच्च सम्मान प्राप्त था। मौलवी तथा उस्ताद भी अपने चेलों की ओर व्यक्तिगत ध्यान देते तथा उनके व्यक्तित्व के चतुर्मुखी विकास के प्रयास करते थे । औरंगजेब का उदाहरण अपवाद है ।