मृदा (SOIL)
मृदा (Soil) मृदा, भूपर्पटी की सबसे ऊपरी परत है जिस पर समस्त वनस्पतियाँ उगती है। यह अनेक जन्तुओं को आम प्रदान करती है, जो इसके ऊपर अथवा अन्दर रहते हैं। पृथ्वी का समस्त भू-भाग मृदा से का नहीं है। उत्तरी ध्रुव का विशाल क्षेत्र बर्फ से ढका है। यहाँ पर पौधे उगने के लिए मृदा नहीं है।
मृदा के निर्माण
मृदा का निर्माण (Formation of Soil) प्रारम्भ में पृथ्वी की ऊपरी सतह चट्टानों की मोटी परतों से बनी थी। सौर ऊर्जा से ये परतें गरम तथा वर्षा से ठंडी होती रही। निरन्तर गरम तथा ठण्डी होने की प्रक्रिया से चट्टानें टूटी टूटी चट्टानों पर वर्षा के कारण दरारों में वर्षा जल भर गया। शरद ऋतु में यह वर्षा जल जमकर बर्फ बना तथा बर्फ का आयतन बढ़ने के कारण चट्टानें और छोटे टुकड़ों में टूट गई।
चट्टानों में खनिज एवं रासायनिक पदार्थ होते हैं जो वायु में उपस्थित ऑक्सीजन के कारण ऑक्सीकृत होते हैं। ऑक्सीकृत खनिज आसानी से टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं। ये लघु कण बहते जल एवं वायु द्वारा इधर-उधर फैल गए।
पौधों की जड़ों में बनने वाला अम्ल भी चट्टानों के टूटने में सहायक बना। अनेक सूक्ष्म जीव भी चट्टानों के अपक्षयन में सहायक हैं। विभिन्न प्राकृतिक प्रक्रियाएँ जैसे- भूकम्प एवं ज्वालामुखी विस्फोट से चट्टानें टूटती हैं।
वायु, तरंगें, हिमनदी एवं वर्षा आदि प्राकृतिक कारकों से चट्टानों का टूटना, चट्टानों का अपक्षयन (Weathering of rocks) कहलाता है। इस प्रकार पृथ्वी की सतह पर चट्टानों के टूटने तथा अन्य पदार्थों को छोटे कणों में बदलने से मृदा का निर्माण हुआ ।
वे कारक जो चट्टानों का अपक्षयन करते हैं, अपक्षयन अभिकारक कहलाते हैं। जल, वायु, तूफान, पौधे, वर्षा आदि अपक्षयन अभिकारक हैं। चट्टानों के छोटे कणों का विभिन्न प्राकृतिक प्रक्रियाओं जैसे- अपचयन, ऑक्सीकरण, जल अपघटन (Hydrolysis) आदि से अनेक अवस्थाओं में अपघटन होता है।
मृदा का संयोजन (Composition of Soil)
मृदा में अनेक प्रकार के खनिज पदार्थ, कार्बनिक तथा अकार्बनिक पदार्थ पाए जाते हैं। मृदा के कण (चट्टानों से टूटकर बने) विभिन्न आकार में होते हैं। मृदा का संयोजन उम चट्टानों पर निर्भर करता है, जिनके टूटने से मृदा बनी है। भिन्न-भिन्न पदार्थों, जीवाणुओं एवं खनिजों से बनी होने के कारण मृदा की भिन्न-भिन्न भौतिक एवं रासायनिक घटक है। जो निम्न है-
(1) खनिज कण (Mineral Particles) -मृदा मुख्य रूप से तीन प्रकार के कणों से बनी है- रेत, कंकड़ तथा मृत्तिका (चिकनी मिट्टी)। मृदा का प्रकार तथा बनावट इन्हीं कणों से निर्धारित होता है।
(2) अकार्बनिक पदार्थ (Inorganic Substances) - पोटेशियम, मैग्नीशियम, सोडियम, आयरन के नाइट्रेट, फॉस्फेट, सल्फेट, कार्बोनेट तथा अन्य लवण मृदा के अवयव हैं।
(3) कार्बनिक पदार्थ (ह्यूमस ) [Organic Substances (Humus)]-जन्तुओं एवं वनस्पतियों की विभिन्न क्रियाओं द्वारा उनके नष्ट (मृत्यु) होने से तथा उनके अपघटन (सड़ने) से प्राप्त कार्बनिक पदार्थ मृदा में मिल जाते हैं। जन्तुओं वनस्पतियों के पूर्णतः अपघटित उत्पाद को ह्यूमल कहते हैं। कार्बनिक पदार्थ मृदा को उपजाऊ बनाते हैं तथ इसकी धारण क्षमता को बढ़ाते हैं।
(4) सजीव प्राणी (Living Organism)—केंचुए मृदा खोदकर छेद करते हैं। ये मृदा के कणों के साथ मृत कार्बनिक पदार्थ निगल जाते हैं। केचुए के शरीर से मल के रूप में निकली मृदा को कृमिकंचुक कहते हैं। जो पौधों के पोषक तत्वों से भरपूर होती है। मृदा में बहुत से जीवाणु जैसे- बैक्टीरिया, शैल तथा फफूँदी पाए जाते हैं। ये जीव समूह कहलाते हैं। ये मृदा की उर्वरता को बढ़ाने में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होते हैं।
मृदा के प्रकार (Types of Soil)
रंग, बनावट तथा अवयवों के आधार पर भारत में पाई जाने वाली मृदा छः प्रकार की होती हैं जिसका विवरण निम्नलिखित है-
(1) लाल मृदा (Red Soil) - इस मृदा में आयरन ऑक्साइड' होने के कारण इसका रंग लाल होता है। इसमें खाद एवं उर्वरक डालकर उपजाऊ बना सकते हैं। इसमें चूना, मैग्नीशियम, फॉस्फोरस एवं नाइट्रोजन की मात्रा कम है किन्तु पोटाश प्रचुर मात्रा में है।
(2) काली मृदा (Black Soil)- इस मृदा में अनेक प्रकार के खनिज विशेषतयः आयरन एवं मैग्नीशियम के यौगिक पाए जाते हैं। यह मृदा वैसाल्टिक चट्टानों से बनी है। यह रेतीली कम व चिकनी अधिक होती है।
(3) जलोढ़ मृदा (Alluvial Soil) – यह मृदा पर्वतों से नदियों द्वारा बहाकर लाई नदी किनारे की गादयुक्त मृदा के जमने से बनती है। यह नदी के किनारे मृत्तिका, रेतीली, तथा गादयुक्त कणों के जमने से बनी मृदा जलोढ़ मृदा कहलाती है। जलोढ़ मृदा को सामान्य रूप से खादर कहते हैं।
(4) रेतीली मृदा (Desert Soil)- मृदा के नाम के अनुसार रेतीली मृदा राजस्थान एवं गुजरात के मरुस्थल क्षेत्र में पाई जाती है। इस प्रकार की मृदा बलुई, छिद्रिल तथा इसमें घुलनशील लवणों की मात्रा अधिक होती है।
(5) पर्वतीय मृदा (Mountain Soil) - पर्वतीय मृदा बहुत उपजाऊ है किन्तु अलग-अलग स्थानों पर इसकी उपजाऊ शक्ति कम व ज्यादा होती है। यह मिट्टी बर्फ, बारिश, तापमान, भिन्नता, आदि के कारण यान्त्रिक विकर्ण होने के कारण बनती है।
यह पहाड़ी मिट्टी जम्मू और कश्मीर, सिक्किम, असम और अरूणाचल प्रदेश के पहाड़ी इलाकों में पाई जाती है। यह मिट्टी भारत के कुल भूमि क्षेत्र का लगभग 8% है।
(6) लाल दानेदार मृदा (Laterite Soll)- इस प्रकार की मुदा में पोषक तत्व प्रचुर मात्रा में नहीं होते क्योंकि भारी वर्षा में काफी पोषक तत्व या तो यह जाते हैं अथवा भूमिगत हो जाते हैं किन्तु यह मृदा चाय, कॉफी तथा नारियल की फसल के लिए उपयुक्त है।
मृदा के प्रयोग (Uses of Soil)
मृदा के बहुगुण होने के कारण इसका प्रयोग विभिन्न क्षेत्रों में आता है जिनमें से कुछ निम्नवत हैं-
(1) कृषि (Agriculture)- पौधों के लिए मृदा में महत्त्वपूर्ण पोषक तत्व पाए जाते हैं। पौधों को पोषण देने के लिए कृषि क्षेत्र में इसका उपयोग किया जाता है उत्तरी कैरोलिना कृषि और उपभोक्ता सेवाओं के विभाग (North Carolina Department of Agriculture and Consumer services) ने यह नोट किया है कि पौधों को प्राप्त होने वाले 13 आवश्यक पोषक तत्व मृदा से ही प्राप्त होते हैं।
(2) मिट्टी के बर्तन (Pottery)-क्ले मृदा (Clay Soil) का प्रयोग सिरेमिक या मिट्टी के बर्तन में किया जाता है।
(3) औषधि (Medicine) - मृदा का प्रयोग आमतौर पर एंटीबायोटिक दवाओं के रूप में भी किया जाता है। मिट्टी द्वारा बनाई गई दवाओं में त्वचा मलहम (Skin Ointments), तपेदिक औषधियां (Tuberculosis Drugs) तथा एंटी-ट्यूमर दवाएं (Antitumor Drugs) आदि शामिल हैं।
(4) सौन्दर्य उत्पाद (Beauty Products) - कुछ प्रकार के सौन्दर्य उत्पादों को मृदा द्वारा ही बनाया जाता है।
फसल चक्र (Crops Cycle)
फसल चक्र से तात्पर्य एक निश्चित अवधि में किसी निश्चित क्षेत्र में फसलों को इस क्रम में उत्पादित करना है कि कृषि की उर्वरा शक्ति का कम से कम हास हो, फसल चक्र कहलाता है।
फसल चक्र में पहले गहरी जड़ वाली फसलों के पश्चात कम गहरी जड़ वाली फसलों को उगाना चाहिए, जैसे अरहर (जो गहरी जड़ वाली फसल होती है) के बाद गेंहूँ (कम गहरी जड़ें) तथा दलहनी फसलों के पश्चात् अदलहनी फसलें बोनी चाहिए।
इसी प्रकार अधिक खाद एवं पानी की खपत वाली फसलों के बाद कम खाद व कम पानी की खपत वाली फसलों की कृषि करनी चाहिए। अतः फसल चक्र को अपनाने से मृदा की उर्वरा शक्ति बनी रहती है तथा विभिन्न फसल सम्बन्धी रोग कीट एवं खरपतवार के नियन्त्रण में सहायता मिलती है। इसके साथ ही कृषि के सीमित साधनों का अधिकतम उपयोग कर अधिकतम उत्पादन करना सम्भव होता है। फसल प्रारूप के आधार पर देश में तीन प्रकार की कृषि पाई जाती है-एक फसली, दो फसली एवं बहु फसली ।
भारत में फसल चक्र के उदाहरणों में एक वर्षीय फसलें (चरी, वरसीम 200 प्रतिशत, धान-गेहूँ-मूँग -300 प्रतिशत एवं टिण्डा - आलू-मूली-करेला) प्रमुख हैं।
द्विवर्षीय (कपास मटर-परती-गेहूं 150 प्रतिशत घरी कम चरी मटर 200 प्रतिशत) एवं त्रिवर्षीय (हरी खाद आलू- गन्ना पेड़ 133 प्रतिशत, मूंगफली-अरहर-गन्ना- मूंग-गेहूँ 167 प्रतिशत) आदि देश के विभिन्न भागों में पारिस्थितिकीय मिन्नता के कारण अलग-अलग फसल चक्र अपनाए जाते हैं।
फसल चक्र के मूलभूत सिद्धान्त (Basic Principle of Crop Rotation)
फसल चक्र के निर्धारण में कुछ मूलभूत सिद्धान्तों को ध्यान में रखना चाहिए-
(1) अधिक खाद वाली फसलों के बाद कम खाद वाली फसलों का उत्पादन।
(2) दलहनी फसलों के पश्चात् अदलहनी फसलें उगाना ।
(3) अधिक पानी वाली फसलों के पश्चात् कम पानी वाली फसलें उगाना ।
(4) फसलों का उत्पादन स्थानीय बाजार की माँग के अनुरूप रखना चाहिए।
(5) अधिक निराई-गुड़ाई वाली फसलों के बाद कम निराई-गुड़ाई वाली फसलें उगाना।
फसल चक्र के लाभ (Benefits of Crop Rotation)
फसल चक्र के लाभ निम्नलिखित हैं-
(1) फसल चक्र से मृदा की उर्वरता बढ़ती है।
(2) भूमि में कार्बन नाइट्रोजन के अनुपात में वृद्धि होती है।
(3) भूमि संरचना में सुधार तथा उत्पादन अधिक होता है।
(4) भूमि की क्षारीयता में सुधार होता है।
(5) फसल का कीटो एवं खरपतवार से संरक्षण होता है।
(6) भूमि में विषाक्त पदार्थ एकत्र नहीं हो पाते हैं।
(7) सीमित साधनों का समुचित उपयोग होता है।
(8) उर्वरक अवशेषों का पूर्ण उपयोग होता है।
फसलों का वर्गीकरण (Classification of Crops)
भारतीय फसलों को निम्न भागों में विभाजित किया गया है-
(1) उत्पादन के अनुसार फसलों का वर्गीकरण-उत्पादन के आधार पर भारतीय फसलों को निम्न भागों में विभाजित किया गया है-
(i) रबी की फसलें-ये फसलें अक्टूबर से नवम्बर में बोई जाती हैं और मार्च से अप्रैल तक काटी जाती है। रवी की फसलों को शीतोष्ण कटिबंधीय फसलें भी कहते हैं। ये फसलें कम तापमान पर लगाई जाती है इन फसलों को ज्यादा पानी चाहिए। इन फसलों में गेहूँ, जो मक्का, चना, सरसों, मेथी, राई, ईसबगोल, जीरा आदि मुख्य है।
(ii) खरीफ की फसलें-ये फसले जून-जुलाई में बोई जाती हैं तथा सितम्बर से अक्टूबर तक इनकी कटाई हो जाती है। ये फसलें गर्मी में बोई जाती हैं। इसलिए ऐसी फसलों को उष्ण कटिबंधीय फसलें कहते हैं। इन फसलों में मुख्यतः चावल, ज्वार, बाजरा, मक्का जूट, मूंग, मूंगफली, तम्बाकू उड़द, कपास, रागी, लोबिया, चंवला सोयाबीन आदि आती है।
(iii) जायद की फसले- ये फसलें मार्च से अप्रैल के मध्य बोई जाती है एवं जून-जुलाई में काटी जाती है। इसके अन्तर्गत सब्जियों, मक्का, खरबूज, तरबूज, अरबी, ककड़ी, भिण्डी आदि आती हैं।
(2) उपयोग के अनुसार फसलों का वर्गीकरण -उपयोग की दृष्टि से भारतीय फसलों को दो भागों में विभाजित किया गया है-
(i) खाद्य फसलें (Food Crops)-वे फसलें जिनका उत्पादन मुख्यतः भोजन के लिए किया जाता है, खाद्य फसलें कहलाती हैं। इनमें अन्न व दालें दोनों शामिल हैं। भारत में इन फसलों में चावल, गेहूँ, दालें, ज्वार, बाजरा तथा मक्का आदि प्रमुख हैं।
(ii) नकदी अथवा व्यापारिक फसलें (Cash or Commercial Crops )- इन फसलों के उत्पादन का मुख्य उद्देश्य इन्हें बेचकर धन प्राप्त करना होता है। किसान इन फसलों के उत्पादों को या तो सम्पूर्ण रूप से बेच देता है अथवा आंशिक रूप से उपयोग करता है। इन फसलों में कपास, जूट या पटसन, चाय, कॉफी, रबड़, गन्ना, तम्बाकू तथा तिलहन (मूंगफली, सरसों, तिल, अलसी, सूर्यमुखी आदि) आदि प्रमुख हैं। नकदी अथवा व्यापारिक फसलों को निम्न प्रकार विभाजित किया जा सकता है-
(a) रेशे वाली फसलें (Fibre Crops)- कपास, जूट, मेस्टा (Mesta) तथा सनई आदि ।
(b) बागान फसलें (Plantation Crops ) - चाय, कॉफी, नारियल, सुपारी, काजू तथा रबर आदि ।
(c) शर्करा वाली फसलें (Sugar Crops)—गन्ना तथा चुकन्दर आदि ।
(d) तिलहन फसलें (Oilseeds Crops)- मूंगफली, सरसों, तिल, अलसी, अरण्डी (Castor) तथा सूर्यमुखी आदि ।
(e) उद्दीपक फसलें (Narcotic Crops ) - तम्बाकू अफीम आदि ।
(f) बागवानी फसलें (Horticulture Crops ) – फल, सब्जियां, मसाले, फूल आदि।
मृदा अपरदन (Soil Erosion)
मृदा की ऊपरी परत का हटना, मृदा का कटाव (अपरदन) कहलाता है। यह वर्षा, जल तथा वायु आदि से होता है। इस प्रकार ऊपरी मृदा का एक स्थान से दूसरे स्थान तक स्थानान्तरण अपरदन कहलाता है। इस प्रक्रिया में मृदा की ऊपरी सतह में उपस्थित चिकनी मिट्टी, दोमट मिट्टी आदि की हानि होती है तथा मृदा में रेत, बजरी आदि शेष रह जाते हैं ।
इस प्रकार उपजाऊ भूमि बंजर भूमि में बदल जाती है। यद्यपि यह प्रक्रिया प्राकृतिक रूप से हवा तथा बहते हुए जल से होती रहती है किन्तु इन प्रक्रियाओं को बढ़ाने में अनेक मानवीय गतिविधियों का भी हाथ होता है।
जैसा कि हम सभी जानते है कि जड़ों का एक कार्य मृदा को बाँधे रखना है। जहाँ घास, पेड़-पौधे आदि उगते हैं वहाँ पर हवा या बहते जल से मृदा पर विशेष प्रभाव नहीं पड़ता तथा भूमि बंजर होने से बच जाती है।
इसके विपरीत वनों की कटाई करने से मृदा की ऊपरी सतह ढीली पड़ जाती है तथा हवा या जल के साथ चली जाती है। वनस्पति न होने का नुकसान यह भी होता है कि वर्षा की बूँदे जमीन पर सीधे पड़ती हैं जिनकी गति अधिक होती है जिससे भूमि कटती है तथा मृदा का एक बड़ा उपजाऊ अंश पानी के साथ बह जाता है। जमीन पर अत्यधिक पशुओं की चराई करने से भी भूमि आसानी से कटती है।
मृदा अपरदन के कारण (Causes of Soil Erosion)
मृदा अपरदन के कारण निम्न प्रकार है-
(1) अत्यधिक चराई- पशुओं द्वारा अधिक चराई से भी वनस्पति नष्ट हो जाती है जिसके कारण भूमि बंजर हो जाती है। बंजर भूमि अत्यधिक जल को रोक नहीं सकती है। अतः तेज हवाओं के द्वारा मृदा का अपरदन हो जाता है।
(2) वनों में आग लगना-प्रायः वनों में आग लगने से भी मृदा अपरदन होता है। इस स्थिति के कारण मृदा पर दो मुख्य कारकों (जल तथा वायु) का अत्यधिक प्रभाव पड़ता है जिसके कारण मृदा अपरदन होता है।
(3) वनों की कटाई- जनसंख्या वृद्धि के कारण कृषि के लिए. इमारतों के निर्माण, सड़क, बाँध और कारखाने बनाने के लिए भूमि की आवश्यकता होती है। अतः इस आवश्यकता की मूर्ति के लिए वनों की कटाई की जाती है। वनों की कटाई (वनस्पति व पेड़ों की कटाई) से मृदा का पानी सूख जाता है।
भूमि में जल रिस नहीं पाता, जिसके कारण मृदा के कण बारिश के जल द्वारा यह जाते हैं। जल नदियों में अपने साथ मृदा के कणों को लाता है जो तलछट मिट्टी के साथ जम जाता है, जिसके कारण बाढ़ आती है। इस प्रकार वनों की कटाई से भूमि बंजर बन जाती है।
(4) मानव-प्राकृतिक क्रियाओं की अपेक्षा मनुष्य द्वारा मृदा अपरदन तीव्र गति से होता है। जैसे- पशुओं को चराना, खुदाई, ढलानों पर इमारतों का निर्माण, वृक्षों की कटाई, खेतों की जुताई आदि ।
मृदा अपरदन रोकने के उपाय (Measures to Prevent Soil Erosion)
मृदा अपरदन को रोकने के उपाय निम्नवत् हैं-
(1) अभियांत्रिकी उपाय (Mechanical Methods) - वैज्ञानिक खेती करने के लिए निम्न अभियांत्रिकी उपाय अपनाने चाहिए-
(i) भूमि को समतल बनाकर जल के वेग को कम किया जाए।
(ii) अधिक लम्बाई वाले बालू क्षेत्री (Step Fields) को छोटे-छोटे टुकड़ों में बाँटकर कम खानाले खेत बनाए जाएं।
(iii) छोटे बांध (Anicuts) बनाकर जल को रोका जाए।
(2) शस्य वैज्ञानिक उपाय (Agronomic Measures)- वैज्ञानिक खेती के सस्य वैज्ञानिक उपाय निम्नलिखित है-
(i) खेत के चारों तरफ मेक बनायी जाए।
(ii) अधिक पशुचारण (Overgnizing) पर रोक लगाई जाए।
(iii) मिश्रित खेती (Mixed Cropping) तथा पट्टीदार खेती (Strip Farming) की जाए।
(iv) खेत के ढलान के प्रतिकूल जुताई (Anti-Ploughing) की जाए।
(v) मृदा की उर्वरता में वृद्धि करने के लिए दाल वाली फसलें (Leguminous Crops) उगाई जाएं।
(vi) खरपतवार (Weeds) की सहायता से खेत के चारों तरफ सुरक्षा पंक्तियाँ (Shelter Belts) लगाई जाए।
(3) फसल चक्र सम्बन्धी उपाय (Measures Crop [Cycle)- वानिकी को प्रेरित करने के उपाय निम्न हैं-
(i) मृदा की उर्वरता बनाए रखने हेतु फसलों को बदलकर बोया जाए।
(ii) मुदा के pH की जाँच के बाद उपयुक्त फसल को बोया जाए।
(iii) फसल की आवश्यकतानुसार भूमि में नमी को बनाए रखा जाए।
(iv) सम्भावित कटाव क्षेत्र के आस-पास सघन झाड़ियों तथा घास की रोपाई की जाए।
उपरोक्त उपाय अपनाकर मृदा का संरक्षण करने के साथ ही कृषि उत्पादन भी बढ़ाया जा सकता है।